महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्यकी असीम कृपा एवं अथक परिश्रमके फलस्वरूप शुद्धाद्वैत पुष्टिभक्ति सम्प्रदाय आज ५३२ वें वर्षमें पदार्पण कर रहा है. महाप्रभु एवं प्राचीन-अर्वाचीन आचार्यवंशजों तथा शिष्यवर्ग के सम्मिलित प्रयासने शुद्धाद्वैत पुष्टिभक्ति सम्प्रदायको सुविचारित गहन तत्त्वदर्शन, विविधतापूर्ण प्रमाणसिद्ध साधनाप्रणाली तथा विपुल शास्त्र का सुदृढ आन्तरिक आधार प्रदान किया है. तदुपरान्त हमारा सम्प्रदाय चित्र, संगीत, पाक, वस्त्र, शिल्प, स्थापत्य, नृत्य आदि कलाओंसे भी सतत समृद्ध होता रहा है.
आज, किन्तु, सम्प्रदायकी स्थिति चिन्ताजनक है. जितनी समृद्ध विरासत पूर्वजोंने हमें प्रदान की थी आज उसके चौथाई भागको भी हम जीवन्त रख नहीं पाये हैं. सम्प्रदायके प्रति हमारी निष्ठाहीनता और प्रमाद हमारे पूर्वजोंके परिश्रमके ऊपर पानी फेर रहा है. ऐसेमें यदि हम आज-अभी जागृत नहीं होते हैं तो भविष्यमें कभी उठ नहीं पायेंगे.
एक अनुमानके अनुसार आज पुष्टिमार्गके अनुयायीओंकी संख्या एक करोडसे कम नहीं है. इसके सामने देखें तो जिनके ऊपर इतने अनुयायीओंको पुष्टिमार्गका ऊपदेश देनेका उत्तरदायित्व है उन आचार्यवंशजोंकी कुल संख्या, अल्पवयस्क सहित, मुश्किलसे २०० जितनी है. हिसाब लगाया जाये तो प्रत्येक आचार्यवंशज गोस्वामीके शिर पर पचास-पचास हजार अनुयायीओंका हाथ पकड कर उनको पुष्टिके पथ पर चलानेका दायित्व आता है. क्या यह सम्भव है? असम्भव. खास कर तब कि जब स्वयं आचार्यवंशजोंके पास इस कार्यको करनेकेलिये आवश्यक योग्यता न हो और यदि कोई उस योग्यताको प्राप्त करना चाहे तो उसे प्राप्त करनेकी कोई व्यवस्था सम्प्रदायमें उपलब्ध न हो.
किसी समय बडे संयुक्त परिवारमें रहते गोस्वामी आचर्योंके प्रायः सभी घरोंमें संस्कृत भाषाका प्राथमिक ज्ञान करा सकें ऐसे एक शास्त्रीजी रहा करते थे. कटु सत्य, परन्तु, यह है कि सम्प्रदायके कई घरोंके आचार्यवंशजोंकी वर्तमान दो-तीन पीढी तो उस सुविधासे भी वञ्चित रही है. खेदकी बात यह है कि आज पांचसौसे अधिक वर्ष सम्प्रदायको हो गये हैं फिर भी, एक करोड अनुयायीओंको सम्प्रदायके सिद्धान्त-ग्रन्थ-परम्परा-सदाचार-कला आदिसे सुक्षित करनेकी व्यवस्था खडी करनेकी बात तो दूर रही, स्वयं आचार्यवंशजोंके गुरुपदोचित शास्त्रीय अध्ययन करनेकी भी सम्प्रदायकी अपनी एक भी व्यवस्था हम कर नहीं पाये हैं. क्या यह सम्प्रदायके माथे पर एक कंलक नहीं है?
आज अंग्रेजी और अन्य आधुनिक स्कूलोंमें अधार्मिक-अशास्त्रीय पढाई करनेवाले परन्तु गुरुपदकेलिये अनिवार्य ऐसे संस्कृत, वेदादि शास्त्र तथा श्रीवल्लभाचार्यके भाष्य-सुबोधिनी-निबन्ध-षोडशादि ग्रन्थोंका समुचित ज्ञान न रखनेवाले श्रीवल्लभके वंशजोंको हमारी भावी पीढी गुरुके रूपमें कैसे स्वीकार पायेगी? जो स्वयं श्रीवल्लभाचार्यकी वाणीको समझनेमें समर्थ नहीं हैं वे सम्प्रदायके शिष्योंको श्रीवल्लभाचार्यके उपदेश क्या समझा पायेंगे? ऐसेमें हमारे सम्प्रदायका भविष्य क्या?
इसलिये, यदि हमें एक सम्प्रदायके रूपमें अपना अस्तित्व बनाये रखना है तो इस समस्यका समाधान खोजना पडेगा. जैसे हमारी सन्तानोंको स्कूल-कॉलेज्की भौतिक पढाई करवानेकेलिये उसे पढानेवाले शिक्षक भी हमारा समाज ही तैयार करता है उसी तरह सम्प्रदायकी नयी पीढीको धर्म-सम्प्रदायकी शिक्षा देनेकेलिये श्रीवल्लभवंशज और शिष्यों को तदनुरूप शास्त्रीय योग्यतासे सम्पन्न बनानेकेलिये एक स्थायी व्यवस्था भी हमें स्वयं खडी करनी होगी.
श्रीमहाप्रभुजीके कालमें पुष्टिमार्गके अनुयायीओंकी संख्या उंगलियों पर गिनी जा सके उतनी सीमित थी फिर भी तत्कालीन शिष्योंमें शास्त्र और सम्प्रदाय का तलस्पर्शी ज्ञान रखनेवाले श्रीदामोदरदास, श्रीकन्हैयाशाल, श्रीपद्मनाभदास, श्रीराणाव्यास, श्रीविष्णुदास, श्रीजगन्नाथ जोषी, श्रीमाधवभट्ट जैसे अनेक शिष्य थे.
श्रीआचार्यचरणोंके स्वधाम पधार जानेके पश्चात् सम्प्रदायके नेतृत्वके क्षेत्रमें शून्यावकाशसा हो गया. उस समय सम्प्रदायके हितका विचार करके राणाव्यास, दामोदरदास तथा कन्हैयाशाल जैसे वैष्णव शिष्योंने श्रीगोपीनाथजी तथा श्रीगुसांईजी को सम्प्रदायका अध्ययन कराकर सम्प्रदायको सक्षम नेतृत्व प्रदान किया था. इसी तरह अर्वाचीन कालमें भी जब-जब सम्प्रदायके गुरुजन अपने उत्तरदायित्वके प्रति उदासीन हुवे तब-तब पंडित श्रीगोवर्धन शर्मा, श्रीगोकुलदासजी सांचोरा, शास्त्री श्रीवसन्तरामजी, शास्त्री श्रीहरिशंकरजी, श्रीमग्नलाल शास्त्री, श्रीनानुलाल गांधी, श्रीजेठालाल शाह, श्रीद्वारकादास परीख, श्रीधीरजलाल संकळीया, श्रीमूलचन्द्र तेलीवाला जैसे विद्वान् पुष्टिमार्गीओंने श्रीवल्लभवंशजोंको शास्त्रोंका अध्ययन कराकर, ग्रन्थोंका प्रकाशन-अनुवाद-लेखन-प्रवचन करके सम्प्रदायकी सेवा की और सम्प्रदायको किसी तरह टिकाये रखा.
आज पुष्टिमार्गके अनुयायीओंकी संख्या उस समयकी तुलनामें यद्यपि अनेक गुनी अधिक हो गई है फिर भी सम्प्रदायका तलस्पर्शी ज्ञान रखने वाले और कठिन समयमें सम्प्रदायके नेतृत्वको उनके उत्तरदायित्वका भान करा सकें ऐसे शिष्योंकी भयानक कमी महसूस हो रही है. सम्प्रदायकेलिये गुरुवर्गका शास्त्रीय योग्यतासे सम्पन्न होना जितना आवश्यक है उतना ही आवश्यक शिष्यवर्गका भी शास्त्रीय योग्यतासे सम्पन्न होना है ही. विडम्बना, परन्तु, यह है कि किसी पुष्टिमार्गीको शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त करना हो तो वह मिलता कहां है? क्या पुष्टिमार्गके पास ऐसा एक भी स्थान है कि
जहां अपने अनुकूल समयमें जा कर कोई व्यक्ति संस्कृत, शास्त्र तथा सम्प्रदायके मूल ग्रन्थोंका व्यवस्थित अध्ययन कर सके?
जहां श्रीवल्लभ सम्प्रदायके मूल ग्रन्थोंका तथा संस्कृत भाषा-तर्कशास्त्र-वेदान्त आदि विद्याशाखाओंका अध्यापन कर सकें ऐसे अध्यापक सदा उपलब्ध हों!
जहां स्वच्छ-सुघड आवास तथा सात्त्विक भोजन उपलब्ध हो!
जहां शान्त-सुन्दर अध्ययनकक्ष तथा समृद्ध पुस्तकालय हो!
जहां अध्ययनकेलिये अपने सेव्य प्रभुको पधराकर जाने पर सेवानुकूल सुविधा भी उपलब्ध हो!
अन्य सम्प्रदायोंकी ओर देखें तो उनके गुरुकुल, आश्रम, मठ, पाठशाला, उपाश्रय आदि राज्य, जिला और गाम तकके स्तर पर उपलब्ध होते हैं. कितने आश्चर्य और खेदकी बात है कि इसके सामने हमारी प्राणभूत आवश्यकता समान यह व्यवस्था हमारे सम्प्रदायके पास समग्र विश्वमें एक भी नहीं है.
श्रीवल्लभाचार्य ट्रस्ट (मांडवी-कच्छ) ने समस्त पुष्टिमार्गीओंके सहयोगसे इस पावन कार्यको सम्पन्न करनेका बीडा उठाया है.
‘‘श्रीवल्लभाचार्य विद्यापीठ’’ नामसे ट्रस्ट एक बहुहेतुक विद्यालयकी स्थापना करने जा रहा है. इस विद्यापीठमें पुष्टिमार्गीओंके सहयोगसे अधोलिखित सुविधाएं क्रमशः उपलब्ध करायी जायेंगी.